Amar Veer
अमर वीर
नमस्कार दोस्तों, स्वतंत्रता दिवस के इस खास अवसर पर, मैं आपको एक ऐसी यात्रा पर ले जाने जा रहा हूँ जहाँ हम अपने वीरों की कुर्बानियों, उनकी कहानियों को जान सकें। आज हम बात करेंगे उन बलिदानों की, उन लहू की बूंदों की, जो हमारे भारत को आज़ाद कराने में बहाई गईं। यह एपिसोड उन वीरों के नाम है जिन्होंने अपने देश को आज़ाद कराने में योगदान दिया, जो लौट कर नहीं आए, लेकिन अपने पीछे एक इतिहास छोड़ गए, जिससे हर भारतीय गर्व से महसूस करता है।
जब भी हम 15 अगस्त का नाम सुनते हैं, हमारे दिलों में गर्व की भावना उमड़ती है, लेकिन इस गर्व के साथ जुड़ी हैं उन अनगिनत कुर्बानियों की यादें, जो आज भी हमारे दिलों को चीर जाती हैं। उन लालों की यादें, जिन्होंने अपनी जानें दीं, कितनी ही माँओं ने अपने बेटों को, कितनी ही बहनों ने अपने भाइयों को, और कितनी ही बेटियों ने अपने पिता खो दिए। लेकिन ये जानना जरूरी है कि ये सिर्फ इतिहास के पन्नों में दर्ज नाम नहीं हैं, ये अमर वीर हैं, जिनके बिना हमारी आज़ादी का गीत अधूरा है। ये वो लाल हैं, जिन पर पूरे देश को गर्व है।
ये वो वीर सपूत हैं, जिनकी बहादुरी के किस्से सुनकर हमारे बच्चे बड़े हुए।
आज मैं आपको ऐसे ही एक वीर की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जो आपके दिलों को छू लेगी और आपके भीतर जोश भर देगी।
सन् 1907 की बात है। एक ठंडी सुबह, पंजाब के बंगा गाँव में, एक साधारण से घर के आँगन में एक नन्हा बालक जन्म लेता है। जैसे ही उसकी पहली किलकारी गूँजती है, घर में खुशी की लहर दौड़ जाती है। माँ की गोद में आया यह बच्चा, जैसे मानो उसके भीतर पहले से ही देश की मिट्टी की महक बसी हो। उसे नाम दिया गया—सिंह। कौन जानता था कि यह छोटा सा बालक, एक दिन अंग्रेज़ी हुकूमत की नींव हिला देगा?
वक़्त बीता, और सिंह बड़ा होने लगा। अपने दोस्तों के साथ खेलते-खेलते, उसकी आँखों में हमेशा एक सवाल चमकता था—"क्यों है हमारा देश गुलाम?" वो बच्चों के खेल में भी अंग्रेज़ों के खिलाफ नारे लगाता, जैसे उसके दिल में आज़ादी की एक ज्वाला धधक रही हो।
फिर, 1919 में जलियांवाला बाग़ का वो भयंकर दिन, जब निर्दोष लोगों पर गोलियाँ बरसाईं गईं। सिंह केवल 12 साल का था, लेकिन उस घटना ने उसके दिल को गहराई से विचलित कर दिया। जलियांवाला बाग की मिट्टी को मुट्ठी में भरकर उसने संकल्प लिया—"मैं इस गुलामी का बदला लूँगा।" उसकी आँखों में आक्रोश था, और उस दिन से उसकी जिंदगी का लक्ष्य तय हो गया।
सिंह ने युवा अवस्था में कदम रखा। उनके कदम और विचारों में अब क्रांति की धारा बहने लगी थी। 1928 में, जब लाला लाजपत राय की मौत का समाचार मिला, तो उनका खून खौल उठा। सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर एक योजना बनाई। एक शाम, लाहौर की सड़कों पर, उन्होंने सॉन्डर्स को निशाना बनाया। गोलियों की आवाज़ ने पूरे शहर को हिला कर रख दिया। ये सिंह का पहला बड़ा कदम था, जिसने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक नई क्रांति की नींव रखी।
लेकिन सिंह यहीं नहीं रुके। 1929 में, उन्होंने दिल्ली की विधानसभा में बम फेंका। ये बम जान लेने के लिए नहीं, बल्कि जनजागरण के लिए था। बम के धमाके के साथ सिंह की आवाज़ भी गूँजी—"इंकलाब ज़िंदाबाद!" वह जानता था कि इस घटना के बाद उसकी गिरफ्तारी होगी, लेकिन वह भागे नहीं। वो चाहते थे कि उनकी गिरफ्तारी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनांदोलन का आगाज बने।
जेल में उन्हें क्रूर यातनाएँ दी गईं। लेकिन सिंह कभी नहीं डरे, कभी नहीं झुके। उन्होंने अपने साथियों के साथ भूख हड़ताल शुरू की, और यह हड़ताल ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक शक्तिशाली हथियार बन गई। हर यातना, हर कष्ट ने उन्हें और भी मजबूत बना दिया। सिंह का संकल्प दृढ़ था—आजादी के लिए जीना और मरना।
फिर वो काली रात आई—23 मार्च 1931। लाहौर सेंट्रल जेल के अंदर सन्नाटा पसरा था। सिंह, सुखदेव, और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई। लेकिन वो तीनों हंसते हुए फांसी के तख्ते की ओर बढ़े। जैसे-जैसे वो फंदे के करीब आते गए, उनकी आँखों में कोई डर नहीं, बल्कि गर्व की चमक थी। आखिरी साँस तक उनके होंठों पर एक ही बात थी—"इंकलाब ज़िंदाबाद!" फांसी का फंदा कसते ही तीनों के शरीर शिथिल हो गए, लेकिन उनकी आत्माएँ अमर हो गईं।
यह सिंह कोई और नहीं हमारे भगत सिंह हैं जिनका बलिदान पूरे भारतवासियों के दिलों में गूंज उठा। उनकी कहानी ने एक नई पीढ़ी को प्रेरित किया, और उनकी शहादत ने देश की आज़ादी की लड़ाई को और भी प्रज्वलित कर दिया।
आज भी जब हम उनकी कहानी सुनते हैं, तो हमारे दिल गर्व से भर उठते हैं। भगत सिंह सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि एक अमर प्रेरणा है—एक ऐसा ज्वाला, जो सदियों तक जलती रहेगी।
इस संदर्भ में मुझे एक कविता याद आती है कि...
किसी ने पूछा आज़ादी की कीमत क्या है
एक बड़ा सुंदर सा जवाब है आपके सामने पेश करता हूँ
आज़ादी की कीमत क्या है
जाकर पूछो उस ज़ंजीर से
जिसने भगत सिंह को जकड़ा था
पूछो उसे हुकूमत से जिसने सुखदेव और राजगुरु को भी पकड़ा था
राहगीर की तासीर लेकर
भारत का तक़दीर बदला था जिन अंग्रेजों ने
संधि की वेश में वह देश को वश में कर गए
तिरंगा खातिर अपने वीर उनके संग लड़ गए
आज़ादी की आस लेकर बोस हमारे अड्ड गए
भारत की मुक्ति खातिर अंग्रेजों पर चढ़ गए
इंकलाब का नारा वाला भारत के आंखों का तारा
शहीद भगत कहलाया वो
खूब लड़ी मर्दानी झांसी लक्ष्मी बाई की जय हो
तुम पूछते हो आज़ादी की कीमत क्या है
जाकर पूछो चंद्रशेखर आज़ाद से
जिसने सीने पर गोली खाई थी
पूछो मंगल पांडे से जिसने पीढ़ियों को जगाई थी
क्या सोचते हो आज़ादी हमें मुफ्त में आई थी
कई वीरों ने अपनी आहुति लगाई
तब जाकर हमें आज़ादी मिल पाई थी
हमारा देश आज ही के दिन सन् 1947 को आज़ाद हो गया था, पर रह गई थीं सीमाएं, जिनकी हिफाज़त हमारे फौजी भाई करते हैं।
हम सुरक्षित हैं क्योंकि वो वहाँ पहाड़ों पर, रेगिस्तान में, और कठिन हालातों में डटे हुए हैं।
चलो, आज मैं आपको एक ऐसी कहानी सुनाता हूँ, जो आपके दिलों में गहराई से बैठ जाएगी। ये कहानी है एक सैनिक की, जिसने अपनी आखिरी चिट्ठी में अपने परिवार को अलविदा कहा। वो सर्दियों की एक रात थी, जब सीमा पर खड़े उस सैनिक ने अपनी माँ को लिखा:
"माँ, शायद अब मैं लौट कर न आ सकूं। तेरे हाथों का खाना खाए हुए महीनों बीत गए, तेरी गोद में सिर रखकर सोने की तमन्ना अब दिल में ही रह गई है। लेकिन माँ, मैं तुझसे एक वादा चाहता हूँ, कि अगर मैं लौट कर न आऊं, तो रोना मत। तू गर्व करना कि तेरे बेटे ने अपना जीवन इस देश की मिट्टी को अर्पित किया है, और ये मिट्टी ही मेरी अंतिम मंजिल होगी।
इस दृश्य पर मुझे एक सैलेंद्र लोधा का एक शेर याद आता है:
कि जिस दिन तू शहीद हुआ
न जाने किस तरह तेरी माँ सोई होगी
मैं तो बस इतना जानूं
वो गोली भी तेरे सीने में उतरने से पहले रोई होगी।
कई कहानियाँ हैं जिनमें हमारे सैनिकों ने अपने परिवार को छोड़कर, अपने वतन के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया। एक कहानी है कारगिल युद्ध की। 1999 में, जब हमारे सैनिक बर्फीली पहाड़ियों पर दुश्मनों से जंग लड़ रहे थे, तब उन्होंने न केवल दुश्मनों को पीछे हटाया, बल्कि हमें गर्व महसूस कराया। कैप्टन विक्रम बत्रा, जिनकी बहादुरी ने उन्हें 'शेरशाह' का खिताब दिलाया, उनकी एक ही पंक्ति थी - "यह दिल मांगे मोर।"
सैनिकों की ज़िंदगी में उनका परिवार सबसे अहम होता है, लेकिन जब देश की बात आती है, तो वो अपने परिवार से पहले देश को रखते हैं। कितनी बार ऐसा हुआ है कि त्योहारों पर वो घर नहीं लौट पाए, लेकिन उनके दिल में अपने परिवार की यादें हमेशा ज़िंदा रहती हैं।
इस संदर्भ में मुझे एक कविता याद आती है कि...
क्या है आज़ादी?
आओ तुम्हें आज़ादी का मतलब बताऊं!
क्या है आज़ादी?
जो सामाजिक, व्यक्तिगत, और आर्थिक तौर पर मुक्त हो,
वह है आज़ादी।
जो सांस्कृतिक और वैचारिक तौर पर सक्षम हो,
वह है आज़ादी।
जो समाज की पाबंदियों से दूर हो,
वह है आज़ादी।
जो किसी की गुलामी से हटकर अपनी सरकार चुनने के काबिल हो,
वह है आज़ादी।
एक शब्द में बताऊं तो,
वीरों का बलिदान है आज़ादी,
उनके लहू की आहुति है आज़ादी।
सच कहूं तो, उनके सपनों की सच्चाई है आज़ादी।
दोस्तों, आज़ादी केवल एक दिन का उत्सव नहीं है। ये वो भावना है जो हमें हर दिन महसूस करनी चाहिए। आज़ादी का मतलब है अपने अधिकारों और कर्तव्यों का सही ढंग से पालन करना। जिस आज़ादी के लिए हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया, उसे हमें सहेज कर रखना है। हमें अपने देश को और मजबूत बनाना है, ताकि हमारे सैनिकों की कुर्बानी व्यर्थ न जाए।
तो दोस्तों, इस स्वतंत्रता दिवस पर आइए, हम सब मिलकर उन वीर सपूतों को सलाम करें जिन्होंने हमें ये आजादी दिलाई। आइए, हम सब इस देश को और बेहतर बनाने का संकल्प लें।
आपसे फिर मिलेंगे अगले एपिसोड में, तब तक जय हिंद, जय भारत!

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